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खैरागढ़ का सियासी राग: छुपा छुपी खेलें आओ!!! ✍️प्राकृत शरण सिंह

फ़िल्म: ड्रीम गर्ल (1977), आनंद बक्शी का लिखा गीत, संगीत दिया है लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने। आवाज: स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की है और अदा हेमा मालिनी की।

 

छुपा छुपी खेलें आSओ, छुपा छुपी खेलें आओ…

पास ही छुपनाSSS दूर न जाSना

जब मैं बुलाऊं दौड़े दौड़े चले आSना।। छुपा छुपी…

 

कोने से आती गीत की मध्यम आवाज कानों में मिश्री घोल रही है। चौक पर हो रही चर्चा से राजनीतिक कर्कशता का स्वाद भी चखा जा रहा है। तासीर यही है, खैरागढ़ की। संगीत प्रेमी सियासी राग सुनते ही ठिठक जाते हैं। उस पर इतवारी बाजार में महफिल जम जाए, फिर क्या कहने!

पहले ही बता दूं, यहां के सुरीले कलाकार, बेसुरी सियासत पर हमेशा भारी पड़ते हैं। ‘जन राग' के साधक हैं। इसलिए सियासत का बेसुरापन इन्हें भाता नहीं। बड़ी बात यह कि ज्यादातर खैरागढ़िया इनसे वाकिफ हैं। ‘तजुर्बा', सियासतदारों की चालें समझता है और ‘रियाज़' भी ये अच्छे से जानता है कि वह एक मोहरे के सिवा कुछ भी नहीं।

 

अब यहां बातचीत पर ज़रा गौर फरमाइए, इस बीच बैकग्राउंड में चल रहे संगीत से ध्यान मत भटकाइएगा…

तजुर्बा: (धुएं का छल्ला बनाते हुए) ये नहीं सुधरने वाले। इनके बस का थोड़े ही है, सियासी राग। इसमें जो जितना अच्छे से मन्द्र सप्तक (इसे नीचे का सुर कह लें) लगाएगा, वही तार सप्तक की ऊंचाइयां छू पाएगा।

रियाज़: …पर ये तो मध्य सप्तक (बीच के स्वर समूह) में ही लटके हुए हैं, उसमें भी बेसुरे ठहरे! सियासी राग के तराने को तो सीधा गा नहीं पाते, आलाप की गहराई क्या खाक समझेंगे।

(दोनों की बात सुन रहा लाल बुझक्कड़ तिलमिला उठा। सामने आकर बोला…)

‘जब से सुन रहा हूं तुम दोनों की किटिर-पिटिर, सीधे बात नहीं कर सकते क्या?’

‘सीधी बात तुम्हारी समझ में आती कब है? बोलो, तो बस मुंह फुला लेते हो’, तजुर्बा बोला।

‘…और वैसे भी, तुम लोगों को न तानपुरे की समझ है और न तबले की, बड़े फनकार बने फिरते हो’, रियाज़ ने मुंह खोला।

‘कह डालो आज जो कुछ भी कहना है, मैं सिर्फ सुनुंगा। जब कहोगे तभी बोलूंगा।’ (लाल बुझक्कड़ मुंह में उंगली रखकर बैठ गया।)

(लुक छुप जाना, मकई का दाना… राजे की बेटी आSई… सब छुप गए… नहीं-नहीं दीदी एक मिनट…)

‘गाने के बोल सुनाई दे रहे हैं? सुने ही होंगे, तुमने! जितने सरल लगते हैं, उतने हैं नहीं। ठीक सियासी राग की तरह। साड़ी, बिछिया, सांटी (पायल) बांटकर कुर्सी पर बैठना एक बात है और जिम्मेदारी निभाना दूसरी। बैठने के बाद तो जैसे सुर ही बदल जाते हैं, जनाब के। फिर चुनावी मौसम में ही रियाज़ (Practice) याद आता है।’

‘बिल्कुल सही कहा आपने, सिंहासन पाते ही लोकतंत्र के राजा रियाज़ को भूल जाते हैं।’

(गाना- …पकड़े गए तुम छोड़ो बहाना… अब मैं छुपुंगी, मुझे ढूंSSढ के लाSना…)

 

अरेSSS!!! कोई ये गाना बंद कराओ, बच्चों वाला।’, लाल बुझक्कड़ बोला।

‘लुका छिपी के इसी गाने में तो खैरागढ़िया सियासत का राज छुपा है।’, तजुर्बा बोला।

‘सीधी बात करो, इधर-उधर मत घुमाओ। मुझे संगीत की भाषा समझ में नहीं आती।’

‘तुम्हें तो सियासत की ठेठ बोली का भी इल्म नहीं है। (पास बैठे रियाज़ की तरफ दिखाते हुए) इसे जानते हो, कितनी मेहनत कर रहा है ताकि सात शुद्ध स्वरों के समूह को साध सके।’

‘आप फिर इनके साथ संगीत की भाषा बोलने लगे!!!’ (रियाज़ का कथन सुनकर तजुर्बे ने उसे घूरा, तो वह खामोश हो गया।)

 

संगीत नगरी की सियासत का हिस्सा हो और गीत-गज़ल से वास्ता नहीं रखते, यानी तुम तो खैरागढ़ की तासीर ही नहीं समझते, लाल बुझक्कड़!’

खूब समझता हूं। देख नहीं रहे क्या, कैसे खेल रहा हूं। तुम सुनते रहाे गीत-गज़ल, मेरी अपनी ढपली है और अपना राग। जिस दिन गुनगुनाउंगा और बजाउंगा, तुम भी थिरकते चले आओगे।

‘तुम्हें मालूम ही नहीं है! छुपा छुपी का खेल उजागर हो चुका है। तुम लोग अपने ही बुने जाल में फंस चुके हो। सांठगांठ की सियासत अब गले नहीं उतरने वाली। तुम्हारे सवाल में तुम्हीं ने ये साबित कर दिया है कि तीन साल तक फ़िल्म रिलीज़ क्यों नहीं हुई। तुम्हारी सौदेबाजी यहां नहीं चलेगी।’

(रुआब देखिए जनाब का) ‘अरे, कुछ नहीं होगा। तुम सिर धुनते रह जाओगे। अभी राजनीति देखी है, कूटनीति नहीं! फ़िल्म में जो दिख रहा है, वह तो नायक है ही नहीं। असली-नकली साबित होते तक खलनायक भी मंच पर प्रस्तुति (चुनाव) की तैयारी कर चुका होगा।

(गाना- … ढूंढ ही लेंगे ढूंढने वाले… गोरा मुखड़ा, नैना काले…)

सुन लो! जनता घेरे में नहीं आने वाली। फ़िल्म सबने देखी है, तीन साल पुरानी ही सही! लाख साजिश मेकअप के बाद भी खलनायक का किरदार समाज को स्वीकार नहीं है। देख ही रहे होगे, एनसीबी (Narcotics Control Bureau) ने रूपहले पर्दे पर दिखने वाली खूबसूरती के जब मेकअप उतारे, तो उनके चाहने वालों ने ही उनसे किनारा कर लिया।’

 

नैतिकता बची हो तो मंच पर प्रस्तुति की जिद छोड़ दो। पहले सरगम का रियाज़ करो। संगीत नगरी का रुख पहचानो। जब सियासी राग गाने लायक हो जाओ, तो दोबारा अपनी भूमिका में आ जाना।’ (चुप बैठे रियाज़ ने यह बात कही, तब तजुर्बा भी मुस्कुराकर बोला…)

‘यार लाल बुझक्कड़! बेकार की तरकीबें सुझाना बंद करो। खबरदार… जो इस गाने का अंतिम अंतरा सियासी राग में दोहराया तो..!!!’

गाना…

छुपने भी दिया नहीं, मुझे हाय हाय

चोरी चोरी मेSरे पीछेSS पीछे चले आए

चोरी चोरी मेरे पीछेSS पीछे चले आए

पकड़ी गई (गया) मैं, तुमने ये जाSSना

तुमने ये माना होगा मैंने नहीं माSSना।।

छुपा छुपी खेलें आSSओ…

 

वायरल वीडियो पर हुई चर्चा इस वीडियो में देखें...

यहां सुने छुपा छुपी खेलें आSओ, छुपा छुपी खेलें आओ...

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Last modified on Saturday, 03 October 2020 06:38
प्राकृत शरण सिंह

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