कुरुक्षेत्र के धर्म युद्ध में पांडवों की तरफ से लड़ने वाला कौरवों का एक भाई था, युयुत्सु। धृतराष्ट्र का 101वां बेटा। वह दासी सुगंधा की कोख से पैदा हुआ था।
युयुत्सु, दुर्योधन से छोटा था परंतु बाकी 99 कौरवों से बड़ा। राजकुमारों की तरह ही उसकी भी शिक्षा-दीक्षा हुई और वह काफी योग्य सिद्ध हुआ। धर्मात्मा था, वह। दुर्योधन की अनुचित चेष्टाओं का विरोध करता था। इस कारण अन्य भाई उसको महत्व नहीं देते थे, मज़ाक भी उड़ाते थे।
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महाभारत के युद्ध में युयुत्सु ने कौरवों का साथ छोड़ दिया और पांडवों की सेना में जा मिला था। युधिष्ठिर ने युयुत्सु को सीधे युद्ध के मैदान में उतारने की बजाय योद्धाओं के लिए हथियार व रसद के प्रबंध की जिम्मेदारी सौंपी। उसने यह दायित्व बखूबी निभाया और अभावों के बावजूद पांडव पक्ष को इनकी कमी नहीं होने दी।
इस पर गौर करें तो पता चल जाएगा कि किसी भी युद्ध के लिए हथियार जितने जरूरी हैं, उतनी ही रसद भी। जाहिर है योद्धाओं को भूखे पेट युद्ध में झोंकना कदापि उचित नहीं। ऐसा किया, तो विजय की अपेक्षा बेमानी ही समझो। बुधवार (14 अक्टूबर) को कोरोना के विरुद्ध लड़े गए युद्ध में कुछ ऐसा ही हुआ। ‘कोरोना योद्धाओं’ को हथियार (मेडिकल किट) देकर युद्ध के मैदान (18 कैंपों) में उतार दिया गया, लेकिन रसद के इंतजाम सिफर रहे।

योद्धाओं ने भूखे रहकर सुबह से शाम तक युद्ध लड़ा। हथियार नहीं डाले, लेकिन दिन ढलते ही 'सेनापति' की लापरवाही उनकी जुबान पर थी। बताया गया कि एक युद्ध, कोरोना के विरुद्ध में 'रणनीतिकार' और 'सेनापति' के बीच बनी संवाद की खाई से निराशा हाथ लगी। रसद की आपूर्ति में यही सबसे बड़ी बाधक साबित हुई। 'सेनापति' को यह अच्छे से मालूम था कि कोरोना योद्धा केवल असला (मेडिकल किट) साथ लाएंगे। मैदान में बाकी इंतजाम उन्हें ही करना है, रसद का भी। इसके बावजूद अनगढ़ हाथों के भरोसे पूरा युद्ध झोंक दिया। समाज सेवियों की नीयत नेक थी, लेकिन युद्ध क्षेत्र में योग्यता का सही इस्तेमाल 'सेनापति' के कुशल नेतृत्व पर निर्भर करता है।
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गलती 'रणनीतिकार' की भी है। हथियार परखे। सैनिकों का इंतजाम किया। रणक्षेत्रों की जिम्मेदारी सौंपी। युद्ध के दौरान प्रदर्शन भी देखा, किन्तु पेट की थाह लेना भूल गए। योद्धाओं ने सुबह पानी पी पी कर नाश्ते की राह देखी। कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने दोपहर तक चने फांके। सोचा था, अब सीधे खाना खाएंगे। मगर उन्हें थाली में मध्याह्न भोजन नहीं, प्लेट में सुबह का नाश्ता परोसा गया। यह देखते ही पारा चढ़ा।
यहां गुस्से की आग भूख से कमजोर थी। इसलिए नाश्ता चबाकर गटक लिया गया। दिल को यह कहकर समझाया कि कुछ देर ठहर, खाना समय पर आएगा। हालांकि ये तसल्ली भी झूठी निकली। कोरोना योद्धा मायूस हुए। 'रणनीतिकार' को दुख बताते भी तो किस भरोसे!? युद्ध की रणनीति ही तो कमजोर थी, वरना 'हथियार' के साथ रसद के महत्व को कम नहीं आंका जाता।
अगर हरेक पार्षद अपने वार्ड के पांच कोरोना योद्धाओं के नाश्ते व खाने की जिम्मेदारी उठा लेता, तो सेंटरों में जाकर 'स्कोर' जानने की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक समय नेताओं की भीड़ देखकर लगा मानो मतदान चल रहा हो। इसी ऊर्जा को टेस्ट की संख्या बढ़वाने में लगाए होते, तो चैन तोड़ने में आसानी होती। इतना काम फोन पर भी किया जा सकता था, जैसे चुनाव के समय होता है। हां, इस प्रक्रिया में फ़ोटो रह जाती।

ज़रा सोचिए! कमीशन के लिए जल शोधन संयंत्र का भूमि विवाद सुलझाने से पहले पाइप लाइन बिछा दी जाती है। बिना ऑडिट चेक पर हस्ताक्षर कर दिए जाते हैं। कोरोना जांच कराने से पहले प्रमोशन के लिए पीआईसी की बैठक रखी जाती है। सिर्फ यही नहीं कोरोना काल में राशन बांटने से पहले पढ़े लिखे पार्षद संतुष्टि प्रमाणपत्र देने के लिए राजी भी हो जाते हैं। मुद्दे पर बोलते हैं, पर कहते हैं छापना मत। क्या बिना 'चाय-पानी' के इतनी शिद्दत नहीं दिखाई जा सकती थी?
कैम्प का सारा आदेश मौखिक था, तो करप्शन और कमीशन का भी कहां लिखित होता है? फिर भी सारी तिकड़म लगाते हैं या नहीं! 'पेंडिंग' के मैसेज भेजकर वसूली का चलन भी तो अभी अभी ही शुरू हुआ है। काश! ऐसा कोई प्रयोजन कैम्प के लिए भी किया जाता। कोरोना योद्धाओं का रसद भी किसी 'पेंडिंग' के जरिए मंगवा लिया जाता, तो यह नौबत नहीं आती!
कोरोना योद्धाओं को ताली-थाली बजाकर सम्मान देने से पहले 'राशि वाली राहत' देते। तिजोरी में रखी सरकारी रकम निकालते। जरूरत पर खर्च करते। सबसे बड़ी बात ये कि युधिष्ठिर सी नज़र रखते, ताकि योग्य 'युयुत्सु' को पहचानकर रसद की जिम्मेदारी दी जा सके, तो योद्धाओं का मनोबल मजबूत होता।
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ध्यान रखिएगा कोरोना से लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। थोड़ी तिकड़मी बुद्धि जनता की भलाई के लिए भी लगानी पड़ेगी। खुद मलाई खाकर भलाई के सारे काम समाज सेवियों के कंधों पर लादने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी। तब ही कोरोना के विरुद्ध वास्तविक युद्ध जीता जा सकेगा।